बरसात तुम्हारी
आँखों
में
वापिस चली गई है
एक निजी द्वार स्पन्दित
होने
लगता
है
एक किरण बिना चाँद की
तुम्हारे
सामने
कौंधती
है
तुम्हें
अँधेरे
में
दिखाई
देने
लगता
है
शीर्षविहीन
कविताओं
में
गाय बैठ गई है
वृक्ष की एक परछाई
अज्ञात के बीजों को
खोल देती है एक अन्तहीन चीख
दुनियाँ
को
तोड़ने
लगी
है
फैसले से होता हुआ संघर्ष
नज़र आता है, तुम मुझे एक प्रार्थना
की तरह निचोड़ देते हो
सतीश वर्मा
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