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Sunday, September 12, 2010

व्याकुलता

दंतुर काँटों पर चल रोज़ी, चल:
नीले रसातल से निकल कर, बेशर्मी से एक शिशु भगवान
ऊपर चढ़कर आ रहा है

नमक का एक पहाड़, जादू टोने करने की खातिर प्रहार
करता है: क्रेनबेरी, ओ क्रेनबेरी यह प्रारम्भ का अन्त था

सम्पूर्णता खतरे में थी, टुकड़े टुकड़े उड़ रहे थे, अंगूठे
चाट रहे थे, सच्चाई को सिर के बल खड़ा किया जा रहा था
एक एक करके दरारें बढ़ रही थीं

अटारी चित्रों और प्रतिकृतियों से भर गई थी,
प्रांगंण खाली था वो नीला भूदृश्य खिड़की पर ठोक
दिया गया था, सड़क का एक बीमार नक्शा जैसे

स्यूडोमॉनस ने फिर अँतड़ियों पर आक्रमण कर
दिया था, ज़ख्म हरे हो गये थे सड़क का तमाशा लोगों की भीड़
से भर गया था वो खम्बों पर चढ़ कर रानी-मक्खी को देखना

चाह रहे थे, हम अभिनय कर रहे थे कि आर पार की दुनियाँ
बदल दी जायेगी और हम निष्ठावान रहेंगे

सतीश वर्मा

रतजगा

तिक्त बादलों में उत्प्लावक तैरते हैं, मैं
अपने आप को मुझ से मौत की गति पाते हुए देखता हूँ

यह प्रतिकृति वास्तविक थी, चित्र राख की तरह
घूसर, रेत के टीबे पर बैठकर मैं शोर मचाती हुई गल्तियों

और गुनाहों की आवाज़े सुन रहा था ज़िन्दगी फिर गल्ती
दोहराती है, जैसे आविष्ट या ग्रस्त, पहियों के पीछे भागते हुए

ज्वर चढ़ रहा था, किसी साँप की सरसराहट
मैं वक्त पर नहीं पहुँच सका, सुकुमारता से एक चाँद

गोलाइयों पर खिसकता है, झील में हलचल मचती है
पक्षियों का एक झुँड समवेत गान के साथ घर वापिस

लौटता है आवाज़ों का एक छोटा नगर मुक्ति माँगता है

सतीश वर्मा

शाश्वत लौ का मौन

तुम मुझ को मेरे से चुरा रहे थे
मेरी कोशिकाएं, मेरे ऊतक, बिना नाम के
जब मैं लंगर उठा चुका था और अपने दर्पण से बात
कर रहा था जिसने मुझे पहिचानने से इनकार कर दिया था
धूप और मिट्टी में पका हुआ
मेरे रक्त और मज्जा को छूते हुए
उस बुर्ज की जलती हुई छत के नीचे

बैसाखियों के सहारे चलते हुए मैंने अपने आँसू पोंछे,
धर्म, जलती चिताएं, एक लैन्टाना झाड़ी के पास
रंगा हुआ मैं खड़ा हूँ, मौत से बात करते हुए श्रृंगारात्मक
रूप से, समुद्री डाकुओं ने पाल हवा की तरफ मोड़
दिये थे, एक काली हवा में एक बड़ी पीत जनसंख्या
का प्रव्रजन

अकड़कर चलने वालों का दिमाग झुर्रियों से भर गया था
और धारावाहिक हत्यारों की आवाज़ गम में डूबी हुई थी

सतीश वर्मा

रेगमाल

मुझे कृपया चिता में प्रथमाग्नि देने
की बोली लगाने दें *यह कौन विश्वास
नहीं करेगा कि शुष्क काष्टीय अंगुलियों ने
अन्तिम इच्छा नहीं लिखी होगी

होंठों से नितम्ब तक ज़रा
तुम सूर्योदय के समय हिँसा के तट पर
जाकर गाढ़े कीचड़ में देखो मैं अभी
दिल दिमाग में आतंक की परिभाषा का मूल्याकंन कर रहा हूँ

यह आदम जाति अजीब ढंग से बर्ताव कर रही थी
मौत और अट्टहास के पुर्जों से बचकर निकलती हुई
छोटे छोटे बच्चों में यह आम रिवाज हो गया था
कि नफरत के बमों से कैसे खेला जाये

आस्था का गर्भपात, एक झुलसा हुआ शिशु
अँधेरे को अपने सफेद दाँतों से काटाने की कोशिश कर रहा था

*एक जैन साधु का अन्तिम संस्कार करने के लिये जैन समाज की परम्परा
सतीश वर्मा

भीतरी आवाज़ें

अन्धेरे में वापिस मुड़कर यात्रा करते हुए
मैं अपने पिता से मिलने जा रहा था और मैंने अपने पोत्र
का हाथ पकड़ रखा था

एक बेतरतीब टूटी हुई सुबह में उन गुज़रे हुए
सालों को मैं उस पुराने घर से इकट्ठा करना चाहता था

जहाँ हम कभी मिल नहीं सके थे वो अपनी जाँघे समेट
कर अनलिखे खतों की घाटी में और पतले मौन के

बीच बैठ थे इससे पहिले कि मैं जानता कि मेरे अगूँठे
पर उनकी त्वचा थी, वो चल दिये थे मैंने

एक गहरे अवसाद में जाकर गाँठ खोल दी थी और
उस मर्मान्तक घाव को देखने लगा था जो अब भी

मेरी सन्तानों की आँखों में बिना रुके जला करती है, बीज,
नमक और खून से सना छाता अब सड़क को ढक लेंगे

सतीश वर्मा

विदाई

एक सफेद रेगिस्तान पर
काला चान्द अज्ञात से अज्ञात
तक चल रहा था
और हिँसा प्रचन्ड रूप से विकसित हो रही थी

विषाणु बड़ी तेजी से संख्या में वृद्धि कर रहे थे
विनाश की लीला ने हरी घास की हरीतिमा
छीन ली थी समुद्री शैवाल ने तटों का गला
घोंट दिया था

जीनों ने अपना वज़न खो दिया था और भारहीन
होकर अगणितीय फन्दों को गले लगाकर
प्रकृतिस्थ, अकलंकित विषयों को नष्ट
करते जा रहे थे

रातभर में तुम ने गुलाबों को इकट्ठा कर
लिया था ताकि आज़ादी को एक सुगन्धित
उपहार दे सको जिस को नदी पार करने के बाद
शांति में दो जून की रोटी नहीं मिल सकी

सतीश वर्मा

नाम की खातिर

सिर्फ आधे सच ने रात को घेर रखा था
सुबह को इन्तज़ार करने को कहा गया था
बर्बर यन्त्रणा के गुनाहों के तत्वाधान में
जननांगों को जलाते हुए रेत मुँह में डालकर
रक्तिम मल मैं तुम्हारा रूप बन जाता हूँ अपना रात्रि भोजन
चीत्कारों के बीच चुनाव का वक्त तुम हाथ जोड़े
हुए आते हो मैं एक छोटा सा मर्मर पक्षी हवा में लटका हुआ
इन्तज़ार में कि पिंजड़ा खुले एक छोटी लड़की को मिली सज़ा
कि कन्धों पर ईंटें रख कर धूप में खड़ी रहे थप्पड़ मार कर
बेहोश करना मुझे एक आकाश और दे दो ताकि मैं
देख सकूँ किस किस से रक्षा करनी है

सतीश वर्मा

एक मृत ज्ञान

वो पूरे जन समूह को पी जाने के लिये
तैयार खड़े थे
वर्षा के भगवान को खुश करने के लिये उन्होंने
एक बच्चे को उबलती हुई दाल की देग में धकेल दिया था

चमकते हुए मुखौटे, समारोह शुरू होता है
एक मिथक आगे बढ़ता है, काँटों का ताज
एक नशे में झूमता हुआ नृत्य

लोग अपनी अँगुलियाँ चाटते हैं
नाखुनों और छेदक दाँतों के लिये बड़ी दावत हो रही है
मैं क्रॉस की तरफ भागता हूँ ज़रा ठहरो

भोथरी रानी के उठे हुए हाथों में
आने वाला कल सौंप दिया जाता है
जलरंग भी अपना वोट डाल रहा है

ज़ख्मी टाँगों को आज़ादी मिल जाती है
वो गरिमा के साथ साथ टाँगे खींचते है
एक एक अगूँठा तुम पेड़ को जकड़ लेते हो

सतीश वर्मा

एक मृत ज्ञान

वो पूरे जन समूह को पी जाने के लिये
तैयार खड़े थे
वर्षा के भगवान को खुश करने के लिये उन्होंने
एक बच्चे को उबलती हुई दाल की देग में धकेल दिया था

चमकते हुए मुखौटे, समारोह शुरू होता है
एक मिथक आगे बढ़ता है, काँटों का ताज
एक नशे में झूमता हुआ नृत्य

लोग अपनी अँगुलियाँ चाटते हैं
नाखुनों और छेदक दाँतों के लिये बड़ी दावत हो रही है
मैं क्रॉस की तरफ भागता हूँ ज़रा ठहरो

भोथरी रानी के उठे हुए हाथों में
आने वाला कल सौंप दिया जाता है
जलरंग भी अपना वोट डाल रहा है

ज़ख्मी टाँगों को आज़ादी मिल जाती है
वो गरिमा के साथ साथ टाँगे खींचते है
एक एक अगूँठा तुम पेड़ को जकड़ लेते हो

सतीश वर्मा

*खरे दर्पण

एक पुष्पगुच्छ का सिर काटने के लिये
तीन गोलियों एक बुदबुदाती हुई छाती में चली गई
हत्यारे तब आये थे जब वो अकेली थी पंखों पर क्षत-विक्षत
चिन्ह लेकर  मौन की आवाज़ों में उड़ गई इस मधुर आवाज़
ने रात को बिना घूंघट के चाँद को चूम लिया था नीली
पहाड़ियों के लिये यह काली रात थी उन्होंने सफेद
जूही के गुच्छे की हत्या कर दी थी मेरे प्यार तुम विचलित
क्यों हो वो तो नारंगी पहियों पर बैठ कर सूरज की तरफ
चली गई काला समुद्र पुष्पहारों को किनारे पर वापिस
फेंक रहा है ताकि मछलियों और लहरों के कौमार्य की रक्षा
हो सके एक खून बहाते भगवान ने पृथ्वी को अपनी
पुत्री मानने से इनकार कर दिया है

*टी वी और मंच पर सुरीले गीत-गाने के लिये आयमान उदास को उसके दो भाइयों ने कत्ल कर दिया था
सतीश वर्मा

एक गोपनीय आत्मा

हर रात यह देह
एक चाकू बन जाती है

खून और घबराये हुए
बदन का अपराध-स्थल

एक मेमना अपनी ऊन बिछा देता है
किसी सिर के पुरजोर हमले पर

गणित के उपहार के साथ
आकाश में एक चाँद तैरता है कटआऊट

एक मियक की सन्तप्त छाया जैसे
एक सन्तप्त रसायन की गहराई में

अनन्त शून्यता अन्धेरे को चूमेगी
मेरी नेत्रहीनता बन जायेगी एक पथ्य

सतीश वर्मा

अस्तित्व

एक शिशु मृत्यु के रहस्य की पर्ते
खोलता है, मधुमक्खी की चक्रीय लय को बदलता है
डेज़ी की घड़ी को, आँसुओं के पिंजड़े को
खोलता है

विषाणु की गन्ध कड़वी थी सल्फाइड से मिलती
जुलती सड़न पहिले तो ऐसा कभी नहीं होता था
वसन्त मजबूर था प्रिमरोज मधु का स्त्रवण
करना भूल गया था

पाषाण सब जगह थे बिस्तर पर, लिबासों पर
आँखों और टोपियों पर सफेद दीवारों पर
नीले ओंठों के चित्र मुस्करा रहे थे?

एक ठन्डा चान्द कुंडलित साँपों पर चल
रहा था दाहक उत्कन्ठा का जहर पीते हुए
टूटे हुए काँच पर धूसर लोग नाच रहे थे
थोड़ी देर में खून के पाँव यहाँ पडे़गे

सतीश वर्मा

मौन सहमति

अनपके विश्वासों को अग्नि आधार
से बुनकर एक नीला पक्षी तेज़ी से

ऊपर उठता है पत्थरों की घाटी को ढकते हुए
पीली विवर्ण लाशों के लिये कोई मितव्ययिता नहीं थी

आँसुभरी हरियाली की हरीतिमा को जले हुए अवशेष
खाते जा रहे थे सूर्य फिर सुस्त हो गया था

एक ठेपी, एक जेल, एक लिस्ट, यह मुकदमा
खत्म ही नहीं हो रहा था एक सुलगते

हुए बगीचे के अपराध बोध से उठता हुआ
जलती पत्तियों का धुँआ, ख्यालों के काफिले

में रिस जाता है, जिससे कोई सवाल नहीं पूछे जा
सकते बादलों के लाल फूल सितारों की नीली लपटों को
आकर्षित कर रहे थे

सतीश वर्मा

गहरे नुक्कड़

एक शिकन भरे प्रक्षेप-पथ पर
रक्त अमूर्त क्षमा की तरफ मुड़ जाता है
मैं समय और इतिहास में अलग थलग पड़ गया हूँ

उछलती हुई चीटियों के पास
साइबरहथियार थे ज़रा उनको टहोका मार कर देखिये
वो न्याय के प्राचीन मकरन्दकोषों पर हमला बोलने वाली थीं

लुटेरे परभक्षी आने वाले थे जो लम्बी गर्दन
वालों और गुलाबी होठों की हत्या करेंगे
तुम मुद्राओं के अभाव के काल के बारे में

विचार करते हो, मृत त्वचाओं के वाक्यांशों
की खातिर, मैं अतीत के टुकड़े करने
लगता हूँ जो भविष्य की धरोहर बनेंगे

यह अज्ञान का पूर्ण सर्वनाश था,
अगुंलियों के बीच में फिसलती हुई
वक्त की सूखी, अनकूटी रेत!

सतीश वर्मा

ज़ख्मी नाच

एक चट्टान दार्शनिक बन गई थी
सितारों की ओर ताकते हुए
उसने चलने से मना कर दिया था

अनभिज्ञ बादलों के ऊपर धूर्त
कमीज़े चहलकदमी कर रही थीं
मैं सारी घड़ियों को अपनी जगहों से हटा देना चाहता था

जल की चोरी कौन कर रहा था?
क्या यह जीवन का रहस्य था? श्रद्धाहीनता ने
निरूद्देश्य प्यार के स्तम्भों को नष्ट कर दिया था

ज्वालामुखी या आँसुओं की भस्म
चेतना के पोरो में प्रविष्ट हो गयी थी
चीखें गहरे रक्त को जगा रही थीं

एक नग्न गुड़िया भूरी दृष्टि फेंकती है
खून चूसती हुई कहानी पर
एक काली सुरंग सड़क पर खुलती है

सतीश वर्मा

एक सड़क से प्यार करते हुए

एक अगुआई कहीं नहीं ले जा रही
एक सीढ़ी, एक साँप, खूनी डग,
एक शहर मातम में, जबकि एक घर की
काली दीवारें अपना मालिक ढूँढती हैं

आँखों के नीचे कण, तिनकों की छायाएं
घूमती हैं नाखूनों की गन्ध कांस्य मौन को
डसती है पपड़ाये सूखे होठों के लिये
ठन्डे वक्तव्य के घूँट मिलते हैं

हर एक चीज़ भूख के ईद गिर्द घूमती है
आँखे अखरोट की कुर्सी पर व्याकरण की
बर्फानी फुआरें इस बार राजा नहीं बोलेगा
सिर्फ भूरी चमड़ी डर जगायेगी

ध्यानमग्न होकर सुनो, अन्दर की आवाज है
वक्त विस्मरणाशीलता के पँखों को सहलायेगा

सतीश वर्मा

ढोल बजाना

किराये पर लिया हुआ वसन्त और नंगी
जांघे वो शाश्वत विषाद फिर भी न जा सका
यह एक अज्ञात सिपाही की बन्दूक के नीचे अपनी
यादों में रहने का वक्त था

पागलपन ने कृत्रिम मुस्कानों को अत्यधिक जोखिम
में डाल दिया था तलवारें, रस्सियाँ और यंत्रणा
देने के भिन्न औज़ार जुगुप्सा उत्पन्न कर रहे थे, मेरी
मिट्टी सभी आघातों को सहन कर रही थी, पीड़ा

का परित्याग करना था मैं उदारता को भस्मीभूत
करने के लिये ढकी हुई अग्नि को हिमवत्तिकाओं
से बुझा रहा था जैसे कोई  विरोधिओं के सेवार्थ

अपनी ही गर्दन की कुर्बानी दे दे

सतीश वर्मा

प्रतिलोम

मृत्यु की दर तेज़ी से बढ़ रही थी
लाल गुलाबों को कोई सन्देह नहीं था संख्याए
माफी नहीं मांग रही थीं या वो स्वयं मरते थे या आत्महत्या कर लेते थे
मौत का कोई मकबरा नहीं था एक एक करके वो
नदी पार कर रहे थे आधे डूबे, आधे तैरते हुए एक
निन्दक प्रणाली में, बिना कोई आवाज़ सुने, सूखे
कृशकाय, आँखे आप के पार देखतीं हुई जैसे किसी
लाश की

उन्होंने दरवाज़ों को चूमा, अब वापिस नहीं आयेंगे
अंगूरों के या विष के तीर्थयात्री, छातियों में
दूध सूखा हुआ और रूपकों का सीने में आघात,
प्रतिघात गीत संगीत रहित मानवश्रृंखला एक
वन से दूसरे वन में भटकती हुई

सतीश वर्मा

विजित हास्य

एक काँटे की छाँह में
घृणा की रसायनिकी बदल जाती है
मैं एक अन्धे सूरज के लिये
अतीत को खोदकर निकालना शुरु करता हूँ
ताकि एक योग्य अस्वीकृति बन सके

वो मृत्यु की पंक्ति में असहाय रूक गया था
नागरिक मारे गये थे
क्या एक प्रार्थारत बुद्ध के हाथ में बम था
जो सर्वनाश करने का अपना दैनिक कार्यक्रम कर रहा था?

मैं चकित रह गया जब एक भगवान को
समाधिस्थल पर अपने पुत्र को खोजते हुए
देखा जो छह फुट गहरे टुकड़े टुकड़े हो कर
बुझती हई मानवजाति के चुम्बनों के नीचे सोया हुआ था

सतीश वर्मा