Pages

Friday, September 10, 2010

बन्धक

साथ साथ रह कर
मेरी कविताऐं मुझे उदास कर जाती हैं

तुम तो वक्त की पहिचान हो
मेरी देह रेत पर ज़ख्मों के निशान छोड़ जाती है

एक बार फिर मैं अपने टूटे फूटे घर गया था
चाँद के नीचे सोने के लिये

सिर्फ एक छोटी सी खिड़की से
मैं रात भर सितारों को देखता रहा

सोच विचार करने और संश्लेषित पिताओं
और किराये  के गर्भाशयों की झील में कूदने के लिये

यह सन्तप्त आस्था अब तुम्हें उत्तरदायी मानती है
हे भगवान, विपर्यस्त क्रम में, तुम आदमी बन जाओ

सतीश वर्मा

No comments:

Post a Comment