Pages

Sunday, September 12, 2010

भीतरी आवाज़ें

अन्धेरे में वापिस मुड़कर यात्रा करते हुए
मैं अपने पिता से मिलने जा रहा था और मैंने अपने पोत्र
का हाथ पकड़ रखा था

एक बेतरतीब टूटी हुई सुबह में उन गुज़रे हुए
सालों को मैं उस पुराने घर से इकट्ठा करना चाहता था

जहाँ हम कभी मिल नहीं सके थे वो अपनी जाँघे समेट
कर अनलिखे खतों की घाटी में और पतले मौन के

बीच बैठ थे इससे पहिले कि मैं जानता कि मेरे अगूँठे
पर उनकी त्वचा थी, वो चल दिये थे मैंने

एक गहरे अवसाद में जाकर गाँठ खोल दी थी और
उस मर्मान्तक घाव को देखने लगा था जो अब भी

मेरी सन्तानों की आँखों में बिना रुके जला करती है, बीज,
नमक और खून से सना छाता अब सड़क को ढक लेंगे

सतीश वर्मा

No comments:

Post a Comment