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Friday, August 31, 2012

यहाँ महारानी सो रही है


दरवाज़े पर एक जाती हुई आवाज़
लटक रही है   एक भीड़ इन्तज़ार में है
अभी शीघ्र ही मध्यरात्रि के विस्फोट
शुरू होंगे जो पटरी पर बैठे लोगों के
लिये एक परोपकारी आकाश के वरदान
की घोषणा करेंगे

एक साम्राज्य के उत्थान और पतन
के इतिहास को मैं पीढि़यों के अपसरण
को सन्दर्भ में कोई लेबल नहीं दूँगा
बदलता हुआ भूगोल
अब भस्मियों की देखभाल स्वयं कर लेगा
एक रद्दी बटोरने वाला लड़का आपको
पूरी दास्तान सुना देगा

खिसकता हुआ चाँद अब बड़ा किफायती
हो गया है जो सिर्फ दागी सपनों पर चाँदनी
बिछा रहा है जैसे हमारी ज़मीन के ज़ख् मदसंतहमक (enlarge)  हों
नफरत का समुद्र सामने नंगा पसरा है
और पुराने कंकालों को समेट रहा है   मैं नहीं जानता
कि मैं सर्वाहारी कैसे बन सकता हूँ

रजि़या बेगम महारानी के मज़ार को देख कर जिसने मध्ययुगी भारत पर अकेली औरत ने राज किया था

सती वर्मा

Thursday, August 30, 2012

खन्डित होते हुए


तुम हमेशा अपनी आँखों में
चाँद को उतार लेते हो
मैं अपनी पलकों को नहीं गिराऊँगा

मैं अपने आप से बात कर रहा था
उस विप्रीप्तता के बारे में  जो
वीर्य को काछते हुए दुग्ध-श्वेत डेज़ी के
फूलों पर काले पत्थर फेंक रही थी उन
खेतों के पक्ष में जहाँ गहराई में हल
नहीं चले थे और बीजों को बीहड़ में छितरा दिया गया था

एक दिन तेदुंआ जंगल में स्वयं हो
दिवंगत हो जायेगा, खड़े खड़े सिर झुका कर
हिलते हुए, एक तरफ झुकते झुकते
धराशायी होते हुए

·भुक्तशेष के देह से अब कोई
·फेरॅमोन प्रसारित नहीं होंगे

· एक जैव रसायन जो किसी स्तनपायी या कीट
की देह में निर्मित होकर वातारवरण में प्रसातिर होकर
अपनी जाति के जीवों कें व्यवहार या जैविकी को
प्रभावित करता है

सतीश वर्मा

Wednesday, August 29, 2012

दुर्घटनाएँ


मैं दलदल में खड़ा हूँ
लड़ाई जारी

धूल बड़ी कच्ची हैं
नाखुनों के पोरों में घुस रही है
उन्हें नीला करते हुए
आज कब्ज़ों से दूर कौन
भाग रहा है?

जननांगी मस्से फैलते जा रहे है
अब ठोस प्रमाण वाक्छजल का मुखौटा
पहिन लेंगे   गाड़ी पटरी
से उतर गयी है   ज़ख्मी हुई
है  केवल ज़मीन

सपने ज़ख्मों को नहीं सी सकते
तुम वहाँ जाना चाहते हो जहाँ
बीहड़ है  टूटे हुए दाँत मिलेगे
और आँखें जहाँ चीटियों ने अपना
घर बना लिया है

सतीश वर्मा

Monday, August 27, 2012

निर्मुक्ति

तुम डर क्यों रहे थे
अज्ञात से ?
मैं सम्पूर्ण सत्य को असंगत संज्ञाओं
की निकटता से दूर ले जाकर माँज रहा हूँ
एक स्वर्णिम त्रिभुज के निष्ठुर
व्यवहार से मर्माहत देह को नये शब्द
सन्धियुक्त कर देंगे

एक आगमन
दु्रत गति को कोई दिशा निर्देश नहीं देता
बन्द आकाश का मोहपाश
तुम्हें बन्दी बना देता है
अब तुम एक अनस्तित्व और आकाशहीनता
की यात्रा शुरू कर देते हो
क्या शून्यता के बाद भी कुछ रहता है ?
मैं बहुत दूर तक गया हूँ ,
अब संख्याओं की ओर नहीं लौटूँगा

सतीश वर्मा