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Monday, August 23, 2010

अभी अभी क्रन्दन

अपने अज्ञात मैं को पहिले से ही
नहीं जानना चाहता हूँ जीभ के सिरे पर
एक अविकसित मौन अपनी विलक्षणता के साथ बैठा है

मैं और मेरा दीपक अन्धेरे में जल रहे हैं, हार कर
एक विफल राज्य की संघनित प्रार्थना
आनेवाली पीढ़ियों को निराश कर रही है

डूबी हुई आँखों से एक विपर्यय दर्द
बाहर आता है हत्याकाण्ड का अपराधकर्ता
छोटे बालकों से क्षमादान चाहता है

परछाई के इस तरफ, दूसरे किनारे पर
एक गँवारू दरिया ने छुरी से कत्ल हुए एक आदमी
ने लाश फेंकी है एक डूबते हुए जहाज़ की दूसरी
प्रस्तावना शुरू होती है

चूहे भुनभुनाते हैं रोशनी के मृत बच्चे को
काट जाते हैं आकाश एक रेश्मी जादू
के निष्कपट खिलौनों से खेलता है रोबोटों
ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया है

सतीश वर्मा

कत्ल की गन्ध

एक वहशी ख्याल जैसे किसी की गर्दन
कलम करने का उठता है, एक परेशान दिल
में एक गीत को नाम मिलता है ताकि वो
काली मकड़ी की जु़बान पर धब्बा मिटा सके
तुम फिर एक खूबसूरत मौत के लिये
अपनी नींद को दाँव पर लगाना चाहते हो

सोचो क्या होगा जब तुम अपने बदन से एक नीली
रोशनी की किरणपुंज की तरह निकल कर चमकते हुए
शोकगीतों में एक काला छेद कर दो, तुम्हारे हाथों पर
छपी हुई रेखाएं कुछ अलग बात कहती हैं जब
श्रवणता सुन न सके और देह अनबोली रहे

भेड़िये आ रहे है, किसी को भी गोलियों की परवाह
नहीं है, अँधेरे में निकलना चाहते है, एक अयिथार्थवादी
समवेत गान गदर का बिगुल बजाता है या फरिश्ते
आसमान से उतरते हैं, एक तेज़ाब चेहरे और गुलाबी
होंठों पर फेंका जाता है क्योंकि उन्होंने नये लफ्ज़ों
को ढूँढ लिया था

सतीश वर्मा

आत्मनिरीक्षण

अन्दर से धँस जाने के बाद कशाघात का स्पन्दित
दर्द, एक गोल्डफिश शुक्राणुओं में लिपटी हुई,
खुलती हुई एक कत्ल की नहर काले डैनों के नीचे शर्म के पार
झुकते हुए गुलाबों को इकट्ठा करती हुई

हम अपनी अर्धपारदर्शिता में खुले दिल से टांगरहित
लड़कों को हथियार बाँट रहे थे ताकि वो स्मृतियों
के गलियारे से एक नाम कन्धों पर उठाकर ले जा सकें
इतिहास शताब्दियों के सन्ताप को फिर दोहराता है

एक यश का नमक फिर जागता है और वफ़ादारों
की आँख का अंधेरा खींच कर बाहर ले आता है
सज़ाओं और नग्न फरिश्तों के बीच एक लकवा
पृथ्वी का गर्भ खाली कर देता है

मैं यह नहीं जानना चाहता कि कृपा-निवासों में हिलते
हुए रोबोटों का क्या होगा जो प्यार की दीवारों में बड़े
बड़े छेद कर रहे थे? क्या लाल बारिश की बौछारें
पर्वतों पर गिरेंगी, सूखे ने अब तक सब कुछ सोख लिया है

सतीश वर्मा

मृण मूर्ति

टूटे हुए हाथों से
            मैं एक चिता जलाता हूँ
                        छोटे छोटे शून्यों की
                                    जिनके नक्षत्र गुलाबी थे
एक लम्बी रात में चन्द्रमाँ मुझे सफेद रंगों में विरंजित कर गया

झुलसाते हुए सूर्य
            से एक निजात पाने की
                        जरूरत थी एक रूपक
                                    का काला जादू खोलते हुए
कविताऐं जलते हुए घर को सम्भाल लेंगी

भविष्यवाणियाँ और मृत्यु
            मैं दर्द के पहाड़ से
                        अपकर्म का अन्त
                                    देखना चाहूँगा
धुएं में बर्फ काँपती रह जायेगी

सतीश वर्मा

खामोश रंग

नकली तालों का एक विक्षिप्त पुनरुत्थान
गुप्त दीवारों के मेहबदार दरवाज़ों को अशक्त
कर गया है जहाँ गुलाब एक लात चन्द्रमा के आभासी
चुम्बनों के नीचे कसमसा रहे थे

वो दुबारा आते हैं खिड़कियों पर निगरानी रखने
के लिये माँ अपने बेटे की जली हुई लाश को
खोद कर निकालती है बिना फिसलते हुए तारे
की प्रशंसा किये जब तक कि ज़ख्म हरे नहीं हो जाते

यह सफेद सन्ताप का नाम था पता नहीं कब
एक नीला दूध विषयुक्त हो जाये और
स्वर्णिम ऊँचाइयों से कुल परम्परा का ह्नास हो
मेरा अटल सच बिना शर्त के रोता

जा रहा था यह भूदृश्य आदमी के टूटे हुए
इतिहास की भस्मों का वारिस नहीं है युद्ध
का प्रलाप किनारों पर खड़ी हुई रोशनी
को मिटाता जा रहा है

सतीश वर्मा

एकाकी खाका

सिर फटने वाले विस्फोट के बाद
कटे हुए सिर से
एक दढ़ियल चेहरा कालातीत नज़र से
टकटकी बाँधे देख रहा था
तब एक बर्षामेघ उछल कर उस अत्याचारी पर
गिर गया ताकि वो जलना बन्द कर सके

चाँदी के कलश में डेज़ी के फूल रखे थे
जो दुश्मनों को कोंपलों की हत्या करने के इरादे
को दूर लम्बे वृक्षों तक ले जा सकें  नीला पारा
बेचैनी से इधर उधर डोल रहा था जैसे एक डूबे
हुए जहाज के हड्डीरहित मस्तूल

तरुण वंशों से प्रतिशोध लेने वाले के लिये
हमने ऊँची अट्टालिकाओं में अपने बीज खो दिये थे
नदियाँ अपना रास्ता बदल रही थीं ताकि स्वर्णिम
घाटियों और श्वेत पताकाओं को डुबोया जा सके

एक नये पैदा हुए बच्चे को धूल पर से किसी ने नहीं उठाया
वक्त काँच के एक गोलक में अशरीरी हो जाता है,
हम छू नहीं सकते सूंघ नहीं सकते सिर्फ मैं
अपना कपाल काले चित्रपट के
गन्दे कीचड़ में डुबो देता हूँ

सतीश वर्मा

Sunday, August 22, 2010

कार्बन श्वासरोध

बिना रोक टोक के होती हुई हिंसा सूर्यास्त बिन्दु
पर अदृश्य होता हुआ नारी-घटक जो सबूतों को
इकट्ठा नहीं कर सका समाधि की शुद्धता क्यों रुक गई
और दिये बुझा दिये गये? इस बार काँटों से खून
बह रहा था देह नज़रों से ओझल हो चुकी थी, दाँतो
से गहरा मौन उछाला जा रहा था जो शब्दों ने झटपट
पी लिया तुम्हारा चुम्बन आ कर विफल हो गया यह
रात बिना चाँद की थी सोते हुए, एक बीज चीत्कार के
साथ चौराहे पर अंकुरित हो गया और एक बच्चे के बलात्कार
पर उसने रसातल को आमन्त्रित कर लिया आओ और
ललाट पर देखो एक जन्मचिन्ह उभर आया है इस देश
का मानचित्र था जो लाल होता जा रहा है और खून से
भर गया है

मैं तेज़ी से भाग कर जा रहा हूँ ताकि न भरने वाले
ज़ख्मों पर नयी त्वचा का आरोपण कर सकूँ मैं कोई
जवाब नहीं दूँगा

सतीश वर्मा

सिलवटें

मुझे आज अपनी शैली मत दो
सिर्फ आन्त्रिक सच्चाई,
जो पीड़ानाशकों से मुक्त हो चुकी हो

गुप्त चर्चा देह को छाँट लेती है
उत्पीड़न के मनोमालिन्य के बाद
ताकि और गल्तियाँ दोहरायी जा सकें

गुज़रे हुए दिन में वापिस जाने पर
ज़िन्दगी भविष्य उद्घोषी रंग में आ जाती है
नारंगी रंग अन्धेरे के साथ सहानुभूति प्रकट करता है

जब मैं चन्दर की लपटों पर शाँत लेटा रहता हूँ
तो समुद्र की नीली आँखों में
सूर्य रिसने लगता है

मैं फिर नमक की झील पर नींद में
चलने लगा हूँ और तर्को की
सीमाएं खींच लेता हूँ

जो एक अनन्त घाव की वैकल्पिक सीवन बन सके

सतीश वर्मा

जो मैंने सब नहीं पढ़ा

मैं एक गीत नहीं लिख रहा हूँ
उसके लिये
एक मुक्त सम्मान की खातिर

सवाल पूछना आसमान को जोखिम
            में डालता है
      बादल रोयेंगे नहीं

एक परदा डालने की कोशिश धर्मग्रन्थों को
उद्धत करती है
    कि तैनाती का मतलब क्या है

अनपढ़ी मौत के पृष्ठों को गिनकर
            क्या मैं अपने आप को
  आत्मसंतुष्ट मान रहा था?

सतीश वर्मा

दर्पण-क्षति

मैं बुरी तरह से खिजा हुआ था
एक एक करके वो
दलदल में गिरते जा रहे थे

द्विगुणन के हक के लिये?
मृत पेलिकन, चोंच के झोले खाली
कोई हवा में चीटियाँ पकड़ रहा था

मेरा सिर गर्म होकर फड़क रहा है
मुझे कोई ठन्डा सेक दे दो
मैं जल रहा हूँ

एक नौ साल की भोली लड़की
अस्सी साल के बृद्ध ने किया बलात्कार
जुड़वाँ गर्भ मैं पागल हो जाऊँगा

वो अब भी स्वर्णिम समुद्र-तट की
बात कर रहे थे और आदर्श आग्रह की
कई तरह के भगवानों को गिनने में बड़ी देर हो गयी थी

वो पीत शरीर अपनी नकाब उतार रहा था
पीड़ाओं ने मृत्यु से उधार माँगी है
और भ्रूण एक मन्दिर बन जाता है

सतीश वर्मा

अजन्मा

ऐसे ही रहने दो, एक सुबह की प्रार्थना
फन्तासी में लिपटी हुई
आत्मा की अन्तवृत जाँच में विध्न डालते हुए
एक पागल मनःस्थिति को लुभाती है

सोते हुए ज्वालामुखी ने उत्सव मनाने का फैसला किया था
और सजावट प्रदर्शित कर दी थी
बिल्कुल बिना चमक वाले हाथ अब ध्वजा उठायेंगे
और अपने गुर्दे, आँखे तथा दिल का दान करने की अपील करेगें

जो एक टूटे हुए तारे की जीवन रक्षा करेंगे, यह
तारा एक किताब के नाम पर एक हाथीदन्त की गाड़ी
में एक रिक्त शव रोज भेजा करता था, एक
अलौकिक स्पर्श की नकल करते हुए ताकि वो
हत्याकान्ड का निस्तारक कहलाया जा सके

वो लोग ग्रीष्म की लपटों से क्यों खेल रहे हैं ?
कुछ पलों ने पाप किया था और अब शताब्दियाँ
कष्ट पायेंगी हरी पत्तियों पर एक कोयल
का खून हो गया था

सतीश वर्मा

Saturday, August 21, 2010

विषदन्त

नफरत की दीवारों को लाँघते हुए
गज़ब के भूदृश्य में एक कटा हुआ चाँद
और तुम बर्फ पर गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखरते हुए
एक दिन मैं तुम्हारे आत्मत्याग के जमे हुए
पदचिन्ह खोज निकालूँगा

अब उसने स्टेम कोशिकाओं की पक्तियाँ परियों
के लिये मुक्त बना दी है द्विसर्पिल अब बार्बी
की नयी गुड़ियां बनायेगा वो ज़ालिम निकर्षक
कंकड़ों को बना रहा था जो मंहगी कीमत पर कोई भी खरीदने
को तैयार नहीं था मेरे पास प्यार का घर बनाने के लिये
ईटें भी नहीं थीं

उसकी तस्वीर अब सड़क पर टंगी हुई हैं वो सफेद
मुस्कान अब तैर कर सूर्य से कुश्ती लड़ने नहीं जा सकती
बिल्कुल नग्न, मेरा भाग्य स्वर्णिम नींद की काली
चट्टान को जकड़ लेता है मैं नया चाँद उगने के
बाद वापिस आऊँगा

सतीश वर्मा

मस्तिष्क-मृत्यु

शब्दों के बीच में कुछ और पढ़ने के बाद, मेरा टूटा
हुआ सपना, जिसे उसके दाँतों से पहिचाना गया था, किसी
अज्ञात डर का पीछा करते हुए काटने लगता है, नदी लाल

            होती जा रही है, विश्वासघात के नाम पर एक धक्का खाये
            प्रेमी का सिर कलम करने के बाद एक पुत्र कैद होने

के लिये माँ की खातिर एक अनदेखे सन्ताप के पृथ्वी समय में
मूक, सन्धिकर्त्ताओं के बीच उबलता
हुआ प्रतिशोध, बीमार दिल, विकराल

            कौटम्बिक व्यभिचार, एक काँच के मर्तबान में
            रखे हुए नमूने जिन्हें मृत्यु की ओर खिसकते

हुए वृद्ध लोग गिरे हुए नायकों के रक्त की
परछाई में देख सकें, अजन्मी शताब्दियों
            की मधुरात्रि निष्फल इन्तज़ार करती हुई

सतीश वर्मा

*मखमली वापिसी

तुम एक गोबर के भृंग के समान सुरंग
की रक्षा कर रहे थे  मैं तुम्हें उस गेंद को लुढ़कने नहीं दूँगा

मेरे दाँत में उठता हुआ भयकंर दर्द तुम्हें क्यों जाना
था आपसी सद्भावना की रेचक मुक्ति के बाद?

दिल में एक पत्थर  डैनों पर बर्फ
आज एक भयानक ध्वंस-अवतारण होगा

उसने अपने हाथों से मृत्यु वरण की गहरे पानी
में स्मृतियों को खेते हुए ठोस पीड़ा की

छत तक पहुँचने के पहिले जन्म से मिले अवसाद
को चाँद की दुल्हन मिली थी बिना माँस मज्जा के

नज़रों से दूर एक हाथ तुम्हारी आँखों तक पहुँचती रोशनी
को पकड़े हुए है तुम मृत्यु की मंझधार में मछलियों के साथ तैरोगे

सतीश वर्मा
*अंग्रेजी की प्रसिद्ध कवियित्री सिल्विया प्लाथ के पुत्र निंकोलस ह्यूग की अलास्का में 16 मार्च 2009 में आत्महत्या करने के बाद

समकालीन

एक नीले ग्रीष्म के
            लड़खड़ाते प्रवेश के समय
            तुम एक मौन
            शिकार बन जाते हो

मैं अपनी हार स्वीकार कर लेता  हूँ
            उन पाषाणों से
            जो मेरी प्रज्ञा पर
            गिर रहे थे

रोज़वुड को कार्बन का डर
            सता रहा था
            झुटपुटे में अधर्म्य प्रेम को
पुनः समाकलन करने में

भविष्यवाणियों में तैरने के पूर्व
            जल की जांच करते हुए
            मैंने किनारे से कहा
            परिपक्त लहरों को पकड़े रहना

सतीश वर्मा

पत्तियाँ

होंठों की छाया में
मन्द चाँदनी में विस्थापित
हम लोग मलिन सम्प्रेषण की बात करते रहे

जो शोषित जीवन के क्रोधित एकालापों
के बीच चल रहे थे
जादू टोना उद्यान के रहस्यों,
स्मृतियों की शाखाओं को खोल नहीं सका था

झूठ के जंगल में खेल चलता रहता है और
खून की पक्तियाँ लग जाती हैं एक विभाजित
वफ़ादारी मौज मनाती है

देह में मिली विरासत डुबकी लगाती है
हड्डियों को बिल्कुल विरंजित करके सफेद कर देती है
ताकि उसे गुलाबी नैतिकता में फिर रंगा जा सके

मैं वहाँ पहुँच जाता हूँ जहाँ की यात्रा मैंने नहीं की थी
अब शोक मनाने के लिये कोई मौत नहीं है
प्रत्येक कीड़ा प्रतिमा की रीढ़ में घुसने के लिये तैयार बैठा है

सतीश वर्मा

*अनावृत और पीड़ा भरा

अलग थलग रहने का खालीपन
डैनों को मुक्त करने की इच्छा,
मैं की परछाई बिना हाड़ माँस के
शब्दों के विशाल मौन को

चीरने फाड़ने की लालसा, द्वैत के समक्ष पैर भारी,
अलौतिक परन्तु समाधान और गहरे आक्रोश 
के बीच तनाव की प्रतिध्वनि, अंकुरित
होते बीजों की फन्तासी की लम्बी उड़ान
याददाश्त की ज़मीन पर आत्मत्याग,
तड़कते हुए रेगिस्तान के अन्तिम गीत पर
मूसलाधार वर्षा की वापिसी

एक तारे के रक्त रंजित सिके शरीर पर बिछी स्वर्णिम
पोशाक पर सर्वहारा पंजों का विवेक

*जेड गुडी की मृत्यु पर
सतीश वर्मा