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Thursday, August 19, 2010

भूख और पलायन के बीच

कराहटों को सुनते हुए,
मोहक अनुभूतियों की खन्डित मुद्राओं के बीच
हम एक दूसरे से डरने लगे थे

बीच रात शंकाओं की नीलिमा ने
कभी आवाज़ नहीं माँगी,
यह अपने आप उभरती है जब तुम अपना दर्द झाड़ देते हो

युद्धस्थिति और भड़कती है:
फिर भूख का नज़ारा एक लुढ़कते हुए बच्चे की गोल गोल
आँखों में अनुनय भरी नज़र, मैं बहुत भावुक हो चला हूँ

काले बालों का सफेद झूठ
आज माँ ज़बानों के पाले में नहीं सोयेगी
काली टाँगों के झुकने के लिये एक प्रार्थना

यह चीज़ आँसुओं के खूबसूरत इतिहास को क्षत-विक्षत
कर देती है  रक्त की नज़र बचाकर
रसायन बदलता जा रहा  है

सतीश वर्मा

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