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Thursday, October 21, 2010

*संघात

उसने मुझे उत्तेजित कर दिया है
            अब मैं एक कविता लिखूँगा

प्रलापी चाँद ने मुझे
            त्वचा के नीचे से निकाल कर बीन लिया था

सुरक्षा-पिन टूट गई थी
            अब भीड़ मुझे नंगा कर देगी

जब जब मेरा दर्द तुम्हें रुला जाता है
            तब यह नांरगियाँ नहीं बिकेंगी

एक कौलीजियम तो ज़ख्मों को सी लेगा
            किन्तु एक जाति के नाम पर देश बलि चढ़ जायेगा

सतीश वर्मा
*साइमोन म्यूनिच’ का काव्य संग्रह आरेन्ज क्रश’ पढ़कर

क्षय

शाँति की कीमत होती है यादृच्छिक
इच्छाशक्ति के समुद्र द्वारा घुटने घुटने गहरे
खारे कीचड़ों में धकेली हुई ध्वंस के बाद,
हस्ती में हस्ती ताकि असहमति ज़िन्दा रहे

मुझे बताओ मृत्यु के बीच में तुम रोशनी की
चाप में कैसे पहुँचे रक्तिम जल की ठन्डी खुशियाँ
में डुबकी लगाते हुए? प्रचलित निवर्तन अन्तहीन
गिनतियों को छितरा गया है अनन्त क्षणों में

स्थायित्व और कपट की बात करें, एक ही चेहरा
एक वक्त में दो कैनवसों में विद्यमान था,
समुद्री शैवाल में अवसाद विजयी हो रहा था
और वृक्षीय चाँद के लिये रात बूँद बूँद झर रही थी

जब पक्षियों के घरौदों में भविष्य आयेगा
तो में कोयल के अन्डे ढूँढूगा, इससे पहिले
मैं तुम्हें दुबारा जान सकूँ एक छिपे हुए चुम्बन
के लिये कीटभक्षी वीनस फ्लाईट्रेप अपना मधु ग्रन्थियाँ खोल देगी

सतीश वर्मा

कड़कती गरमी

बेघर छत के नीचे, रोशनी
को कैद करते हुए, काफी नहीं था
सन्ताप हुए एक जन्म की चीत्कार?
तीक्त वक्ष से होते हुए स्त्राव
आखिर तुम ने गेंदे के फूलों के साथ गठबन्धन तोड़ दिया

नीललोहित आँखे, प्रक्षेपणास्त्र मृत्यु
की ओर धकेलते हुए, चीखें मैंने एक
पेपरवेट शिराओं के ऊपर रख दिया था ताकि
स्तनग्रों से निकलता हुआ काला खून रूक जाये
सुबह, अभी बहुत दूर थी, मातृदेवी पृथ्वी की बर्फ
को साँस में खींच रही थी

सतीश वर्मा

जयन्ती

तुम्हारे शरीर के चारों ओर
एक नैशसंगीत फैलाते हुए
मैं दंग रह गया
एक नागराज खड़ा हो गया था
हम दोनों के बीच में, जैसे एक बाँध क्रोध और उन्माद
में फट गया हो,
मैं शब्दों के साथ श्रद्धाहीन तरीके से खेलने लग गया था

एक काँच के मर्तबान में बड़ी बड़ी मकड़ियाँ
गोल भूरी आँखों से टकटकी बाँधे घूर रही थीं,
आह अब जघन दृश्य कष्टकारी है, सेक्स और पैसा
संगीत उन्माद में फेंका जाता है, अछूतीकला पर
हमला हुआ है, अणु-अस्त्रों की दौड़ में संरक्षक अपने
पैंतरे बदलते हैं, एक गुनहगार का बयान था कि, क्या यह सड़क

का तमाशा था, या एक धूर्त का असमंजस, भूरी चमड़ी की
शिराओं में पर्याप्त रक्त नहीं था जो मन्दिर के फर्श
को रंग सके, मौत इन्तज़ार करेगी, पहिले जनता के सामने
फाँसी शुरू हो, हवाओं में फुसफुसाहट है कि पवित्र
घूर्तता का आखिरी उत्तरजीवी मर गया था

सतीश वर्मा

अवरोही

मैं अपने आप को तैयार कर रहा था अपमान
और सीने में दर्द के लिये, अनकटे बालों को काँटों की तरह परिरेखाओं पर
खड़ा करके, अज्ञात मोड़ों पर चाँद-नीली पहाड़ियों पर बादलों
का जीर्णोद्धार करते हुए, वृक्षों पर जलरंग बिखराते हुए, कोई
एक जना समाधि-स्थल के भीतर तूफान मचा रहा था, पीले कमरे में
एक फकीर के पदचिन्ह थे, जो रहस्योद्घाटन के पश्चात आँखें
बन्द कर के शमशानों में चलता था, उसके चीथड़ों की अब
पूजा होती थी  बाद के सालों में उसके टेक लगी देह के
अन्धेरों से रोशनी दमकने लगी थी गुलाब ही गुलाब चहुँ
ओर, वो जल्लाद से कह रहा था गीत के स्वर में कि खम्बे
कितने ऊँचे थे

सतीश वर्मा

अनूठी गूँज

होठों पर एक
चुम्बन स्पष्ट शैली में
एक सुगन्धित व्यवहार के साथ वापिस लौटता है

मैंने सुना नहीं
उन असीमित नज़रों के साथ, बेड़ियों
में जकड़ा एक कैदी जो आत्मरक्षा पर उतर आया था

लाल रंग के सारे छायाभास
सागर के ऊपर चले रहे थे
एक काली खोपड़ी पानी पर फिसलती है

रात पोर पोर में भर जाती है
तूफान काले हिरणों को मार रहा था,
शिकारी भाग रहे थे

वो मायावी
बड़े कपट से काम ले रहा था, तुम्हें
गृह-युद्ध में मरने वालों की सही संख्या कभी पता नहीं चलेगी

उसने वाणी के उपहार को कभी स्वीकार नहीं किया
शब्द और सीटियाँ अतियथार्थ की प्रतिध्वनियाँ थीं
और मुझे एक नाक तलवार की तरह दिखाई देती थी

सतीश वर्मा

उदासी के साथ

गुरदों की आग
टोकरी को जला रही थी
हरे अंगूठों की गोपनीयता
इसमें आत्मीय रूप से शामिल थी

आओ इस मोमबत्तियों के अभियान से
कलियों की खातिर भागीदारी करें
जो बूढ़े पक्षियों के लिये
खिल नहीं पाईं

उस शहीद का यह स्मृति-लेख मुझे
दुबारा पढ़ कर सुनाओ जिसने बहते
हुए दरिया के दर्द के कारण
किसी यश की कामना नहीं की

उस एकाकी बन्दे के उन्माद की हद
न रही जब गुलाब की क्यारी पर
एक बाँध ने सड़ी हुई लकड़ियाँ
उगल दीं

सतीश वर्मा

प्रतीक्षा

*ऑरकिअस के रास्ते मत जाओ
वो सोचता था, दोस्त सड़क पर अजनबियों की तरह
मिलते हैं, क्या निर्बाध अवर्तमान हवा

में एक बड़ा छेद ढूढँ सकेगा? सत्य का काल
बड़ी देर से उगता  है;  हवा में नहाये चन्द्रमा
को गवाह के रूप में बुलाता है

यह कम्पन बैंजनी डर को खौफ
की चलनी से आसवित कर लेगा
और नीले किनके गिरना शुरू होंगे

सहमति ने अब असत्यता का नया अर्थ
ढूँढ निकाला है, फिर झुकती है, सम्भवतः
एक वृहत सृष्टि के लिये

पागल करते मूक विरोधों के बीच में  बच्चे की लाश
कचरे के ढेर पर मिली थी, शाकाहारी लोग कुछ नहीं कर रहे थे

तुम भी एक मृत शरीर की तरह कमज़ोर हो गये हो और
पट्टी बँधे चेहरे से आँखे नहीं खोलना चाहते

सतीश वर्मा
*एक प्राचीन युनानी कवि

एकाकीपन

जो हो रहा था, वो इतना क्रूर था
कि तुम जीने के लिये मौत
का निर्वासन करते हुए दंभ को
गले लगा रहे हों

एक नकल किसी प्रतिभा का ऐसा
गुणगान कर रही थी जैसे शब्द
बाल्टीभर झूठों पर गिर रहे थे

पीठ से पीठ मिला कर सूखे बाँध
टूटते जा रहे थे आप्लावित हो रहे थे
मनीषियों की जैसे पाषाणी शव-पेटिकाएं?

और वृक्षों के तनों पर वार्षिक वलय
और गहरे, कंगाली की काई में डूबे
उसके चाँद की किताब काली हो गई थी

विदा, न डूबने वाले अन्धकार
मैं अपने दुःख के अथाह सागर
में दुबारा जन्म ले रहा हूँ

सतीश वर्मा

आगमन

यह चाँद की चेतावनी
थी रात को
कि जुगनुओं का देह व्यापार बन्द कर दिया जाये

जब आकाश में हुए विस्फोट
को लाखें सितारे अचिम्भत
हो कर देख रहे थे

मैं नींद के झौंको में मस्त था और
नये प्रस्फुटित विचारों के होंठों से
विद्युत बीजों को चुन रहा था

शरीर की रेतघड़ी में
बालू खत्म हो गई थी

दूर था अस्थियों का किला
जो काली विषैली मकड़ियों के शरीर
पर चुना गया था और समुद्र धुन्ध को चाट रहा था

सतीश वर्मा

व्यंग्यपूर्ण

जब रात ठन्डी थी
नभ चाँद को पी गया

सड़क किनारे एक अकेला वृक्ष
एक शिकार की खोज में खोजते भेड़िये का इन्तज़ार कर रहा है

जो वैद्युत त्वचा को चुरा ले
जैसे स्तनों पर भागती हुई नसें

नदिया बह रही थी
चढ़ते हुए उन्माद को टोहका मारते हुए, विदालित करते हुए

फिर भी प्यास नहीं डूबती
जैसे टारपीडो से पिटी हुई पनडुब्बी

एक बूँद में चाँद के लाखों चेहरे
एक चाँद में एक बूद भी नहीं

सतीश वर्मा

दिमाग से बाहर

प्रतिशोध का कैदी
वो एक नमक की झील के नीचे गाड़ दिया गया

दुर्ग्राह्ना, उसकी ऊरुसन्धि
ततैयों के डंकों से ज्यादा दूर नहीं थी

खून बह रहा था
वो सोच रहा था कि सच को कैसे पकड़ा जाये

जो काली नदी में
अछिद्री उद्देश्यों में लिपटा हुआ था

धनलिप्सा के काले आलिंगन में
अभिशप्त टपकन

दर्द खुलता हुआ, नये शिकवे
रिसते हुए घाव त्वचा के नीचे रेंगते हुए

बदबू दराँती से काटती है
आत्मप्रशंसा में वह अस्वीकृतियों को समेटना शुरू कर देता है

सतीश वर्मा

चुभती देगें

आखिरी अनुष्ठान के रूप में
मुख में अग्नि देते हुए
उसने अपने ऊपर होने वाले सवालों के हमले के लिये
स्वयं को तैयार कर लिया, जो उसपर जोंक की
तरह चिपटने वाले थे, खून चूसने वाले परजीवी

यह एक बेतुका प्यार का सहमिलन था दो रिश्तेदारों
का, जिनमें एकदूसरे को मारने के लिये
छुरियाँ सतत चलती रही थीं, चूसने वाले
न तो तुम्हें जिन्दा रखेंगे
न मार देंगे

हिमालय के शिखर से उतार कर बर्फ लाने की क्या कीमत थी
ईश्वर के निवास में रक्तरंजित
इन्सानों के पदचिन्ह? लगातार तेज़ होती लड़ाइयाँ
और काले सूरज की फिसलती हुई जटायें
बड़े बादलों ने घूसर रोशनी का समवेत गान शुरू कर दिया था

सतीश वर्मा

ताल में स्फटिक

एक टेढ़ा तिरछा चाँद
दृष्टि फेरता है
एक पावन वृक्ष के नीचे आता है
और दागदार विजय को धोने लगता है

एक अज्ञात शहीद के स्मारक पर
भेड़िये हुँआ हुँआ चिल्लाने लगते हैं
आदम-खोर शक्कर के द्वीप पर
बल खाते हैं और
नियति की बात करते हैं

एक शोक मनाती हुई भीड़ चलती है
मृत्यु का खन्डन करती हुई
एक दिन एक सम्बोध-गीति
की  बारीकियां डेल्टा को
पिघला देंगी

एक अर्द्ध-पारदर्शी कत्ल का अर्थ बताने वाली
प्राचीन दार्शनिक शैली
उदासी की प्रज्ञा समझाती है
जो खून से दागी हुई रोशनी को
धकेल नहीं सकती

सतीश वर्मा

एक पगली विषय - वस्तु

एक खीज गहरी शिराओं में पैठ गई थी,
मोचक निर्भीक हो गया था
और झुलसाती हुई धूप में ऊपर से कूद कर उसने मौत को गले
लगा लिया था एक सितारा मछली ने खोपड़ी
और तिर्य्क हड्डियों की खौफनाक पोशाक पहिन रखी थी

ध्रुवतारा आत्मा की मुक्ति के लिये
काँटों का ताज पहिनने की कोशिश कर रहा था
गुलाबी टोपी पहिने हुए डाहलिया, दूधिया मुस्कान
वापिस लौटने के लिये युद्ध करते हुए एक नयी
शैली अपना रहे थे

इल्लियाँ लोहे के जूते पहिन कर चल रही थी
और वो तितलियों का स्वरूप ग्रहण करने से इन्कार
कर रही थी अलगाव की कड़वाहट में अन्डों का रहस्य
गाड़ दिया जायेगा मैं अपनी आस्था के कारण
अपने पिछवाड़े बहती हुई नदी में डूबता जा रहा था

सतीश वर्मा

विचलन

वक्त रहस्यमय वर्जित स्थानों पर ठहर गया है
तुम एक अनजान डर को
कोड़ी की तरह अपनी गरदन में लपेटे हो

एक अभेद्य बख्तरबन्द ने काम नहीं किया
दिमाग की वो मछली ही धर्म थी

अब तुम किस पर विश्वास करते हो
उन खुशामदमन्दों की भीड़ में? जो तुम से
एक फीका पड़ते तबर्रुक की खातिर तुम्हारे खून की हर बूँद
माँग रहे हैं

हिमालय पर्वत का आरोहण एक महान चुनौती था
ऊँचाइयों को तोड़ते हुए
जैसे प्लाज्म़ा, जैसे किसी अनजान समाधि पर जमी हुई बर्फ

कई कोणों से एक प्रार्थना को दोहराते हुए
पुजारी चकरा गया था
और ईश्वर को ऊँचा उठाते हुए फर्श काँपने लग गया था

सतीश वर्मा

एक आत्मा का अवसान

आसमान घिरा हुआ था, चाँद भी उदास
भस्मियाँ गई झील में

सुबह की बारिश में उस पक्षी की हत्या किसने की थी?
भस्मियाँ गई झील में

एक छिपा हुआ जल्लाद खुद नहीं मरा
भस्मियाँ गई जेल में

वो पुराना मशहूर नाम अब सर्वनाश का प्रतीक है
भस्मियाँ गई झील में

मैं तुम्हें बिल्कुल अन्धेरे में आवाज़ दूँगा
भस्मियाँ गई झील में

उन चढ़ते दुए खुदाओं ने मेरी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी
भस्मियाँ गई झील में

एक बच्चे को माँ के बिस्तर से चुरा लिया
भस्मियाँ गई झील में

सतीश वर्मा

* अलविदा

मेरे साथ चलो
खून से लथपथ चाँद
मैं आज बहुत एकाकी हूँ

एक औरांगअटान के समान
होठों के कोर पर आई हुई बात
यह जानना चाहती है कि जंगल का अन्त कहाँ होगा

ज़मीन के आखिरी टुकड़े पर
उन्हें चारों तरफ से घेर लिया गया था
किसी भी समय वो लोग सामूहिक आत्महत्या करेंगे

जाँघों का सम्मान
और बन्दूकों की रक्षा के लिये
फिर काँच के साइनाइड कैप्सूल दाँतो से काट लेंगे

क्या मुझे उदास होना चाहिये?
हे भगवान वो बिना धन्यवाद बोले
धूल में सोने जा रहे हैं

सतीश वर्मा
* यह सुनने पर कि तामिल टाइगर्स सामूहिक आत्महत्या की योजना बना रहे है