जो हो रहा था, वो इतना क्रूर था
कि तुम जीने के लिये मौत
का निर्वासन करते हुए दंभ को
गले लगा रहे हों
एक नकल किसी प्रतिभा का ऐसा
गुणगान कर रही थी जैसे शब्द
बाल्टीभर झूठों पर गिर रहे थे
पीठ से पीठ मिला कर सूखे बाँध
टूटते जा रहे थे आप्लावित हो रहे थे
मनीषियों की जैसे पाषाणी शव-पेटिकाएं?
और वृक्षों के तनों पर वार्षिक वलय
और गहरे, कंगाली की काई में डूबे
उसके चाँद की किताब काली हो गई थी
विदा, न डूबने वाले अन्धकार
मैं अपने दुःख के अथाह सागर
में दुबारा जन्म ले रहा हूँ
No comments:
Post a Comment