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Thursday, October 21, 2010

अवरोही

मैं अपने आप को तैयार कर रहा था अपमान
और सीने में दर्द के लिये, अनकटे बालों को काँटों की तरह परिरेखाओं पर
खड़ा करके, अज्ञात मोड़ों पर चाँद-नीली पहाड़ियों पर बादलों
का जीर्णोद्धार करते हुए, वृक्षों पर जलरंग बिखराते हुए, कोई
एक जना समाधि-स्थल के भीतर तूफान मचा रहा था, पीले कमरे में
एक फकीर के पदचिन्ह थे, जो रहस्योद्घाटन के पश्चात आँखें
बन्द कर के शमशानों में चलता था, उसके चीथड़ों की अब
पूजा होती थी  बाद के सालों में उसके टेक लगी देह के
अन्धेरों से रोशनी दमकने लगी थी गुलाब ही गुलाब चहुँ
ओर, वो जल्लाद से कह रहा था गीत के स्वर में कि खम्बे
कितने ऊँचे थे

सतीश वर्मा

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