Pages

Thursday, October 21, 2010

एक तम्बू के गाँव

तुम लकड़ी की टाँगों पर चलते हो
सीने में एक गाँठ, हालांकि सुसाध्य,
परन्तु शिशुओं को माँ के गर्भ से अपहृत किया हुआ:
एक गन्दी चादर पर सड़क का नक्शा फैला हुआ,
एक अप्राप्त कड़ी को ढूँढने के लिये
जबकि एक ठोस-ईधन का प्रक्षेणास़्त्र छूटने
के लिये तैयार था

रंगसज्जा के लिये लोहित हों
चिंबुक पर चुभते हुए अनचाहे बाल
मस्तिष्क में बाज़ों का झुरमुटः
असुरक्षित लोग अपने घाव सहलाते हुए;
शर्म की सुरंगों में छिपते हुए; मुझे नींद में
काले रसफल अच्छे लगते है, मैं अपनी आवाज़ नहीं सुन सकता
अपने हाथों के लिये अन्धा हो गया हूँ

केसर के शुष्क वर्तिकाग्र मेरी अश्लील गरीबी
को पीत-लाल रंग दे देगे, झुग्गी झोंपड़ी में
बारिश हो रही थी, बैठने की जगह नहीं, पुरानी
स्मृतियाँ वापिस आ रही हैं
मैं एक पहिया कुर्सी से उठ खड़ा होता हूँ

सतीश वर्मा

No comments:

Post a Comment