नैतिक रात में अपराधिता का प्लावन था
सूर्य नीचे गिरता ही जा रहा था पैबन्द लगे मोर्चे पर
हमारी आहत, अस्मिता के उत्थान और पतन के साथ
जब तुम एक बिसरे भगवान की तरह
समाधि-स्थल के फर्श पर आश्रम की दरियादिली
की वजह से बेसुध लेटे थे यह एक पवित्र अन्तःक्षति थी
एक गीली फफूँद के नीचे एक लूली लंगड़ी
मृत्यु की गोद में जाकर भी नहीं रो सकते थे
इतिहास फिर शुरू हो रहा था, भूख और बेगुनाहों के
कत्ल के बीच, विध्वसों की बौछार में दीवारों पर मकड़ियाँ
फेंके हुए, बिखरे हुए अक्षरों को खा खा कर मोटी हो गई थी
विफलता की सज़ा सेक्स की गुलामी करने को मजबूर करती थी
राख से लिपटी हुई देह पायदान पर पड़ी थी
सतीश वर्मा
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