Pages

Monday, August 20, 2012

एक निरर्थक कविता


एक ईश्वरपरक पहेली से कुश्ती करते
वक्त में ब्रह्म की प्रकृति के बारे
में बात करना चाह रहा था    भगवान मेरी
बगल में ही बैठे हुए थे   आदमी में बहुत
अहंकार गया है उन्होंने कहा मैं अब
अपना पद छोड़ देना चाहता हूँ

एक नरगिस के फूल को चबाते हुए
क्या तुम्हें एक आत्ममोही बन जाने का
डर सता रहा था ?

प्रफुल्लतावश
मैं एक उन्मादी कथा को सुनने की कोशिश कर रहा हूँ
एक घटित हुए अविवेक के दूसरे पक्ष को सुनने के लिये
पुनरूज्जीवन के बाद एक लाश फिर जि़न्दा हो
गई थी    रेगिस्तान में बिखरी हडि़डयॉँ हसने
लगी थीं   झींगुरों की स्वरसंगति का
समवेत स्वर उठ रहा था और फुदकते हुए
टोड ने आवारा कुत्ते के साथ दोस्ती
कर ली थी

सतीश वर्मा

No comments:

Post a Comment