एक अगुआई कहीं नहीं ले जा रही
एक सीढ़ी, एक साँप, खूनी डग,
एक शहर मातम में, जबकि एक घर की
काली दीवारें अपना मालिक ढूँढती हैं
आँखों के नीचे कण, तिनकों की छायाएं
घूमती हैं नाखूनों की गन्ध कांस्य मौन को
डसती है पपड़ाये सूखे होठों के लिये
ठन्डे वक्तव्य के घूँट मिलते हैं
हर एक चीज़ भूख के ईद गिर्द घूमती है
आँखे अखरोट की कुर्सी पर व्याकरण की
बर्फानी फुआरें इस बार राजा नहीं बोलेगा
सिर्फ भूरी चमड़ी डर जगायेगी
ध्यानमग्न होकर सुनो, अन्दर की आवाज है
वक्त विस्मरणाशीलता के पँखों को सहलायेगा
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