कब्ज़े से उतर कर मैं जागता हूँ
स्मृति-लोप के वृक्ष के चारों तरफ रिबन बाँधते हुए,
एक तितली चौंका जाती है, दीनता की नीलिमा
को उदास करते हुए मैं चाहता था सिर्फ समारोह
की मौनता ताकि समाधियों की घाटी में मृत्यु का
स्वागत कर सकूँ, भूखे लकड़बग्घे मौत के घाट
उतारने की कला की कदर कर रहे थे और दुख मनाते
पिता पैरों वाले खजूर के वृक्षों का बारिश में पीछा कर रहे थे
घड़ियों को आपने वचन की यह याद दिलाने के लिये कि उन्हें वक्त
की प्रचन्डता को रोकना है: मेरे प्यार, अब जाने दो
यह दर्द अब आँखों को घसीट लेता है और ऐंठनें
आने लगती है, चाँद एक पिशाच को परखने के लिये
नीचे उतर आया है
सतीश वर्मा
No comments:
Post a Comment