हिंसा
बिल्कुल
शुद्ध
मैं
चाहता
हूँ
तुम
इस
शोर,
चकाचौंध
और
इन
धमाकों
को
ध्यान
से
सुनो
अन्दर
ढका
हुआ
एक
दीपवृक्ष
टूटता
है
और
छोटी
छोटी
ऋचाओें
में
बँट
जाता
है
सबको
समेटते
हुए एक स्थितीय
चक्कर
में
तुम
कील
का
सिरा ठोकते हो
मैं
अब
मुक्ति
चाहता
हूँ गोलाइयों
और
मेहराबों
की
तारीखें
बदलते
हुए
उष्मायन:
यह
अपूर्ण
ही
रहा लोग उस पीडि़ता
को
नँगा
करके
सड़कों
पर
घुमायेंगे
क्यों कि
उसका
बलात्कार
हुआ
था
आखिर
उसने
टेस्टोस्टेरोन्स
को
उत्तेजित
क्यों
कर
दिया
था ?
भ्रमणशील
पर्णांग
और
फरकुला·
कैदी
को
कुछ
भी
नहीं
चाहिये
वो
अब
अँधेरे
में
ही
रहना
चाहती
है
सूर्य
के
नहीं
उगने
तक
सतीश वर्मा
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