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Thursday, September 6, 2012

उबारते हुए


        1
एक अनिच्छुक दूरी, अलग से
मैं उसे बाँहों में भर लेना चाहता हूँ

एक आध्यात्मिकता बिना भगवान की थी
उधर अँधेरे की सरगोशी

हमेशा एक गन्धमय जिस्म बन जाती है
मैं अपने आप को खोलने लगता हूँ

            2
विवेक की यह बहुसंख्यक लडि़याँ
मुझे कृपया छू लेने दो

अन्तत:   एक धर्म क्या चीज़ है ?
तुम हमेशा बाहर निकलने का द्वार ढूँढते रहे

विश्वासघात और धर्मनिष्ठा और
धुँधले दिन    मैं हमेशा ही पागल रहा

बुझती हुई रोशनियों को देखते हए


सतीश वर्मा

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