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Saturday, September 29, 2012

जकड़न


नितान्त रूप से थकते हुए
आज मैं अपनी पताका                                
को फहरा दूँगा

जब चाँद झील में गिरा था
तो अँधेरे में वक्तव्यों की अर्थछटाओं का
हरा ज़ख्म बन गया था

विक्षिप्त जपाकुसुम की शैली
का प्रतिकार करते हुए मैं
तितलियों से बातचीत कर रहा था

मेरे आँगन में फिर वर्षा
हुई थी   संगमरमरी पत्थरों
और मेरी आँखों को गीला करते हुए

मेरे सिर से आज छत को उठा दो
मैं आज प्रशीतित आँसुओं
से मुलाकात करूँगा

खाली खाली आँखों में एक विशाल
अपराधबोध झलकने लगा है
मैंने मृत्यु के विलासपूर्ण वक्ष को अंगीकार क्यों
नहीं कर लिया था

सतीश वर्मा

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