एक
लिफ़ाफे
में
वो
एक
कटी
हुई
अँगुली
थी
जिसने
सहमति
का
पत्र
लिखा
था
ओ
मेरे
पिता
शब्दों
और
अँकों
को
खो
देने
के
बाद
मैं
अभी
तक
रोये
चला
जा
रहा
हूँ
पहाडि़यों
के
उस
पार
मैंने
अपनी
कविताओें
का
गूढ़
भेद
भेज
दिया
था जिन्होंने
मुझे
उस
चाकू
का
नाम
नहीं
बताया
था
जो
मेरी
पीठ
में
हया
में
लिपटे
हुए
अज्ञात
भाइयों
ने
घोंप
दिया
था
अब
मैं
पूरी
जि़न्दगी
हरा
ज़ख्म
लेकर
जिऊँगा
यह
केवल
क्षमायाचना
थी मैं
अब
भी
चलता
रहूँगा
उन
पैर
की
अँगुलियों
के
सहारे
जो
पीठ
पर
उभरे
निशानों
को
ज़मीन
पर
कुरेद
रही
थीं
सतीश
वर्मा
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