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Wednesday, September 26, 2012

प्रतिष्ठित करते हुए


एक लिफ़ाफे में
वो एक कटी हुई अँगुली थी
जिसने सहमति
का पत्र लिखा था

मेरे पिता
शब्दों और अँकों को
खो देने के बाद मैं अभी तक
रोये चला जा रहा हूँ

पहाडि़यों के उस पार
मैंने अपनी कविताओें का गूढ़ भेद

भेज दिया था जिन्होंने मुझे उस
चाकू का नाम नहीं बताया

था जो मेरी पीठ में
हया में लिपटे हुए
अज्ञात भाइयों ने घोंप दिया था
अब मैं पूरी जि़न्दगी
हरा ज़ख्म लेकर जिऊँगा

यह केवल क्षमायाचना थी   मैं
अब भी चलता रहूँगा उन पैर
की अँगुलियों के सहारे जो
पीठ पर उभरे निशानों को ज़मीन पर कुरेद रही थीं

सतीश वर्मा

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