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Saturday, September 15, 2012

आदर्श लोक


क्या कोई विकल्प रह गया था ?
हिंसा वही थी
बुराई शांतिवाद में भी थी

दस्तख़तों वाले पेड़ पौधे
एक मानसिक सन्तुलन प्रदर्शित करते हैं
मैं अपूर्णता को याद करता रहता हूँ

एक अवसादी पल में, मैं चाँद की हत्या
कर देता हुं और अँगारों पर चहलकदमी
करने लगता हूँ ज़रा मुझे अपना हाथ देना

अब कोई भी पथ नज़र नहीं रहा था
लेकिन वृक्ष बालू-तट पर चल रहे थे
लिंगों में ाुरू हई लड़ाई

कभी खत्म नहीं होगी   तितलियाें
को कैद करने वाले का रहस्य बहुत पहिले
ही कहीं गाड़ दिया गया था

बचपन से अब झूठाें के जंगल में
प्रविश्टि हुई थी   यह एक लम्बी यात्रा की
गन्धों की विस्मृति को झेलते हुए
सतीष वर्मा

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